नेता वही जो जन-ज्वार लाए, ज्वालामुखी नहीं जो कभी भी फट जाए
Sunday, Jul 13, 2025-07:28 PM (IST)

नेता वही जो जन-ज्वार लाए,
ज्वालामुखी नहीं जो कभी भी फट जाए
तीखे तेवरों वाली सियासत में आंखों के डोरे सुर्ख़ लाल होते हैं और जुबां तीखी भाषा से लबरेज...सार्वजनिक रूप से गालियों तक से गुरेज नहीं ...पहले नेतागिरी में एक किस्म की परदेदारी होती थी...आप जैसे हों लेकिन जनता के सामने अलहदा, सुलझे नेता की छवि जानी चाहिए. मगर युवा राजनीति का दौर और उपर से सोशल मीडिया की तीखी मिर्च का त़ड़का जब से लगा है...वायरल और सोशल मीडिया सनसनी बन जाने की ख्वाहिश में हर युवा नेता भरी भीड़ में फैलने लगता है, बिफरने लगता है...।
उग्र तेवरों वाले नेता पहले भी कम नहीं थे. कांग्रेस में नरम दल-गरम दल तो हम सब ने पढ़ा है...क्रांतिकारियों की कौन कद्र नहीं करता...लेकिन मुद्दा यह है कि क्या आज के नेता जन-ज्वार लाने में कामयाब हो रहे हैं या फिर खुद ही ऐसे ज्वालामुखी बन रहे हैं जो कभी भी अचानक से फट जाएं, बिखर जाएं , बेकाबू हो जाएं ?
मुद्दों के संघर्ष से किसे गुरेज है लेकिन मीडिया के कैमेरों का तो लिहाज़ हो ...अपने से बड़े, छोटे और आस-पास के लोगों का तो ख़्याल हो...राजनीति में ये अलग अंदाज है...जहां गुस्सा, नाच-गाना और अक्कड़ मिजाजी सब कुछ जनता के सामने हैं....जनता भी वोट दे या न दे लेकिन कम से कम भीड़ के लिहाज़ से तो ऐसे नेताओं को हाथों-हाथ ले रही है, मोबाइल टू मोबाइल वीडियो वायरल हो रहे हैं...अच्छे-खासे संजीदा नेता...बात,बेबात भड़क रहे हैं, उलझ रहे हैं...।
सिस्टम कभी न तो पूरी तरह ठीक था और न हीं आगे पूरी तरह ऐसा हो सकता है लेकिन सिस्टम के नाम पर सियासत का ढर्रा बिगड़ जाए तो फिर चिंता होना लाज़मी है...आप सहीं हो या ग़लत लेकिन किसी को थप्पड़़ कैसे मार सकते हैं ? वो भी किसी अधिकारी को ? गाली गलौच कैसे कर सकते हैं वो भी सरेआम ? वायरल होकर जनता का दिल बहलाने का जतन करने वाले बात-बेबात पर भड़कने वाले नेताओं को सोचना होगा कि आख़िर लोकतंत्र का मतलब क्या है...यहां अपमान और अन्याय सहकर अपनी बात कहनी है...।
न तो यहां राजतंत्र है और न ही तानाशाही ...कि इसके ख़िलाफ़ आप रॉबिनहुड की छवि लेकर सियासत करने लग जाएं. ये समझना होगा कि भारतीय राजनीति एक दिलचस्प संगम है...संविधान की मर्यादाओं और जनभावनाओं की ज्वार-भाटा वाली लहरें इस संगम का अटूट हिस्सा हैं. इस संगम में जब कोई नेता अपनी उग्रता, विद्रोही तेवर और आंदोलनकारी शैली के साथ उतरता है, तो वह या तो मसीहा बनता है, या मशहूर बाग़ी... आज के दौर में उग्र तेवर रखने वाले नेता तेजी से उभरते हैं, लेकिन प्रश्न यह है—क्या ये तेवर टिकाऊ हैं? क्या ये जनता को दिशा देते हैं, या केवल तालियां और तात्कालिक समर्थन बटोरते हैं? भारत जैसे लोकतंत्र में, जहां हर गली-मुहल्ले में एक मुद्दा और हर जनमानस में एक गुस्सा पल रहा है, वहां उग्र तेवर रखने वाले नेता तुरंत Hero of the Masses बन जाते हैं. वे युवाओं में जोश भरते हैं, पुरानी व्यवस्थाओं पर सवाल उठाते हैं और संस्थागत ढांचे को चुनौती देते हैं। सोशल मीडिया और खबरिया चैनल भी ऐसे नेताओं को हाथों-हाथ लेते हैं, क्योंकि कैमरे को गरजते चेहरे, तीखे शब्द और सड़कों पर प्रदर्शन चाहिए...अगर भारत की राजनीति का इतिहास की ओर देखें, तो गांधी जी के शांतिपूर्ण सत्याग्रह के समानांतर भगत सिंह जैसे युवाओं के उग्र विचार भी भारत को जाग्रत कर रहे थे. जयप्रकाश नारायण का ‘संपूर्ण क्रांति’ आंदोलन हो या राममनोहर लोहिया की सत्ता-विरोधी राजनीति—इन सबमें उग्र तेवर मौजूद थे, लेकिन इन तेवरों की एक दिशा थी...एक तरीका था...वक्त-बेवक्त कभी भी बिखरने या फैलना अगर ज़रूरी है तो हो लेकिन मक़सद क्या है ? इससे व्यवस्था तो बदल नहीं रही...अलबत्ता मीडिया की बनाई इमेज में खुद बंध जाने का खतरा बढ़ रहा है...मसलन, ये नेता आया और फैला नहीं तो फिर न तो मीडिया तो मज़ा आएगा और न ही जनता को....इसीलिए जनता के मजे के लिए फैलना जरूरी है...किसी न किसी को चांटा रसीद करना जरूरी है,,,किसी न किसी से उलझना ज़रूरी है....
राजस्थान की राजनीति में हनुमान बेनिवाल, निर्मल चौधरी, नरेश मीणा, रवीन्द्र भाटी, राजकुमार रोत जैसे नेता की शैली में उग्रता है...वे जनता की भाषा भी बोल रहे हैं...सियासत की पुरानी इबारतों को मिटाकर नई इबारत गढ़ने के लिए....अपनी सियासी पारी संवारने के लिए, मुद्दों को अपने तरीकों के उठाने के लिए...गुस्सा ज़रूरी है लेकिन अनकंट्रोल्ड, अनगाइडेड मिसाइल की तरह नहीं कि कहीं भी गिर जाएं...किसी पर भी गिर जाए...
राजनीति में ये सही है कि उग्रता जननेता को जनता के करीब लाती है, लेकिन संयम उसे टिकाऊ नेता बनाती है. नेता की विश्वसनीयता केवल नारों और आंदोलनों से नहीं बनती, बल्कि उसकी सोच, नीति और भविष्य दृष्टि से बनती है...उग्र तेवर यदि नीति विहीन हों, तो वे केवल गुस्से का प्रदर्शन बनकर रह जाते हैं... बिना रणनीति के उग्रता कई बार खुद नेता के लिए आत्मघाती सिद्ध होती है। सत्ता में बैठे लोगों से टकराव, कानूनों की अनदेखी, या असंयमित भाषा नेता को गंभीर मुसीबत में डाल सकती है। अक्सर देखा गया है कि कुछ नेता टीवी डिबेट्स में ज़ोरदार तेवर दिखाकर रातोंरात वायरल हो जाते हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत और संगठनात्मक ताकत के अभाव में उनका राजनीतिक भविष्य अधर में लटक जाता है । उग्र नेता के समर्थक बहुत तेज़ी से उसकी आवाज़ बन जाते हैं। "हमारा नेता बोले, तो बिजली गिर जाए" जैसी मनोवृत्ति उनमें घर कर जाती है। लेकिन यदि इस जोश को संयम, संगठन और सेवा से नहीं जोड़ा गया, तो यह केवल भीड़ बनकर रह जाती है। युवाओं में ऊर्जा होती है, लेकिन राजनीति उन्हें दिशा भी देनी चाहिए। सिर्फ नारा लगाना सशक्तिकरण नहीं है, बल्कि नीति निर्माण में भागीदारी ही असली लोकतंत्र है। राजनीति में भाषा का विशेष स्थान है। एक शब्द नेता को इतिहास में अमर कर सकता है, और एक गलत शब्द उसे तिरस्कार का पात्र भी बना सकता है। उग्रता का मतलब यह नहीं कि मर्यादा टूट जाए। कई बार उग्र तेवर एक खास वोटबैंक को साधने की रणनीति बन जाते हैं। कुछ नेता जानबूझकर टकराव का मार्ग चुनते हैं ताकि वे प्रतिरोध की राजनीति के नायक बन सकें। लेकिन जनता अब केवल आवाज नहीं, परिणाम चाहती है। उग्रता को अगर राजनीतिक पूंजी समझ लिया गया, और नीति, संवाद या समाधान से दूरी बना ली गई, तो नेता लोकप्रियता की ऊंचाई पर जाकर भी स्थायित्व नहीं पा सकेगा।
तो दोस्तों , राजनीति में उग्र तेवर होना बुरा नहीं है, बशर्ते वह दिशाहीन न हो। भारत जैसे विशाल लोकतंत्र को गरजने वाले नेताओं की उतनी ही जरूरत है, जितनी सोचने और संवाद करने वालों की। लेकिन वह गरज निर्माण की हो, विध्वंस की नहीं।
इसलिए आज के नेताओं को चाहिए कि वे अपनी आक्रामकता को जनता के हक में काम लाने वाला हथियार बनाएं, न कि केवल तात्कालिक लोकप्रियता की दौड़ में इस्तेमाल होने वाला इश्तेहार...
"जुबां की तलवार से सियासत चलती नहीं,
दिलों को जीतने का हुनर भी चाहिए।”