राजस्थान उपचुनाव के इतिहास में कौन सीएम कितना रहा सफल ! Rajasthan Politics
Monday, Nov 25, 2024-03:48 PM (IST)
राजस्थान में उपचुनावों का राजनीतिक सफर: अशोक गहलोत से वसुंधरा राजे तक
राजस्थान के विधानसभा उपचुनाव हमेशा से राज्य की राजनीति का आईना रहे हैं। ये चुनाव न केवल सरकार की लोकप्रियता का परीक्षण करते हैं, बल्कि विपक्ष की ताकत और जनता के मूड को भी जाहिर करते हैं। हाल के उपचुनावों में बीजेपी ने 7 में से 5 सीटें जीतकर पिछले 13 वर्षों में अपनी सबसे बड़ी सफलता दर्ज की। इस जीत ने एक पुरानी परंपरा को भी तोड़ दिया, जिसमें माना जाता था कि बीजेपी की सरकार होने पर कांग्रेस उपचुनावों में भारी पड़ती है। इस बदलाव ने सियासी विश्लेषकों को पिछले 26 सालों के उपचुनावों का इतिहास खंगालने पर मजबूर कर दिया।
अशोक गहलोत: परीक्षा और संघर्ष का दौर
अशोक गहलोत ने जब 1998 में पहली बार मुख्यमंत्री का पद संभाला, तो उन्हें लगातार उपचुनावों की परीक्षा से गुजरना पड़ा। उनके कार्यकाल में 13 उपचुनाव हुए, जिनमें कांग्रेस केवल 5 सीटें ही जीत पाई। विपक्षी बीजेपी ने 7 सीटें झटक लीं, जबकि एक सीट निर्दलीय उम्मीदवार के हिस्से में गई। यह दौर गहलोत के लिए आसान नहीं था। राज्य कर्मचारियों की सख्ती के खिलाफ प्रदर्शन और जाट समुदाय की नाराजगी ने उनकी सरकार को कमजोर कर दिया।
हालांकि, गहलोत के तीसरे कार्यकाल में परिदृश्य पूरी तरह बदल गया। 2018 से 2023 के बीच हुए 8 उपचुनावों में कांग्रेस ने 6 सीटें जीत लीं और बीजेपी को केवल 1 सीट पर सिमटकर रहना पड़ा। इस दौरान गहलोत ने सहानुभूति की राजनीति और लोकलुभावन योजनाओं का बखूबी इस्तेमाल किया। दिवंगत विधायकों के परिजनों को टिकट देकर उन्होंने जनता की भावनाओं को अपने पक्ष में किया। दूसरी तरफ, बीजेपी में गुटबाजी और अंदरूनी खींचतान ने उनके प्रयासों को कमजोर कर दिया।
वसुंधरा राजे: शुरुआत में सफलता, लेकिन बाद में कमजोर प्रदर्शन
वसुंधरा राजे के पहले कार्यकाल ने बीजेपी के लिए एक नया उत्साह लाया। 2003 से 2008 तक हुए 5 उपचुनावों में बीजेपी ने 3 सीटों पर जीत दर्ज की। यह वह दौर था, जब बीजेपी ने पहली बार अपने बलबूते राजस्थान में सरकार बनाई थी। जनता के समर्थन और विपक्ष की कमजोर रणनीति ने राजे को मजबूत स्थिति में रखा।
लेकिन उनका दूसरा कार्यकाल उतना प्रभावशाली साबित नहीं हुआ। 2013 से 2018 तक हुए 6 उपचुनावों में बीजेपी का प्रदर्शन गिरावट पर रहा। पार्टी केवल 2 सीटें जीत पाई, जबकि कांग्रेस ने 4 सीटें अपने नाम कर लीं। इस दौरान सत्ता विरोधी लहर और बेरोजगार युवाओं की नाराजगी बीजेपी पर भारी पड़ी। गुर्जर आंदोलन और वसुंधरा राजे के खिलाफ खेमेबाजी ने पार्टी की स्थिति और बिगाड़ दी।
भजनलाल शर्मा: एक नई शुरुआत
हाल ही में मुख्यमंत्री बने भजनलाल शर्मा के पहले साल में ही 9 उपचुनाव हुए, जिनमें बीजेपी ने 5 सीटें जीतीं। कांग्रेस और निर्दलीय उम्मीदवारों ने 2-2 सीटें हासिल कीं। भजनलाल के लिए यह एक चुनौतीपूर्ण समय था, क्योंकि उनकी सरकार के पास खुद को साबित करने का यह पहला मौका था। लेकिन उन्होंने संगठन को मजबूत रखा और असंतुष्ट नेताओं पर कड़ी नजर रखी। उनके नेतृत्व में बीजेपी ने बागियों को मनाने और गुटबाजी पर काबू पाने में सफलता हासिल की।
उपचुनावों का राजनीतिक सबक
राजस्थान के उपचुनावों का इतिहास यह बताता है कि सत्ता में रहने वाली पार्टी के लिए जनता का विश्वास बनाए रखना मुश्किल हो सकता है। अशोक गहलोत ने अपने तीसरे कार्यकाल में यह दिखा दिया कि सहानुभूति की राजनीति और जनहित योजनाओं का सही इस्तेमाल सत्ता विरोधी लहर को दबा सकता है। वसुंधरा राजे का पहला कार्यकाल बीजेपी की ताकत का प्रतीक था, लेकिन दूसरे कार्यकाल में अंदरूनी कलह और जनता की समस्याओं को नजरअंदाज करना उनकी कमजोरी साबित हुआ।
वहीं, भजनलाल शर्मा ने अपनी नई टीम और बेहतर रणनीति के साथ यह साबित किया कि राजनीतिक स्थिरता और संगठनात्मक मजबूती से उपचुनावों में जीत हासिल की जा सकती है।
राजस्थान के उपचुनावों का यह सफर राजनीतिक उतार-चढ़ाव का सटीक उदाहरण है। यह हमें सिखाता है कि चुनावी सफलता केवल लोकप्रियता पर निर्भर नहीं करती, बल्कि इसमें संगठनात्मक तालमेल, जनता से जुड़ाव और सही समय पर सही निर्णय लेने की भी अहम भूमिका होती है। चाहे वह अशोक गहलोत की अनुभव आधारित राजनीति हो, वसुंधरा राजे का जोशीला नेतृत्व या भजनलाल शर्मा की नई शुरुआत—हर नेता ने उपचुनावों से कुछ सीखा और जनता के मूड के मुताबिक खुद को ढालने की कोशिश की।