वर्षों पुरानी परंपरा के अनुसार 107 फीट की ऊंचाई पर चढ़कर सूर्य मंदिर के शिखर पर लगाई नई ध्वज पताका
Saturday, Oct 12, 2024-07:21 PM (IST)
झालावाड़, 12 अक्टूबर 2024 । झालावाड़ जिले के झालरापाटन स्थित अति प्राचीन सूर्य मंदिर पर विजयादशमी के अवसर पर वर्षों पुरानी परंपरा के मुताबिक आज नई ध्वज पताका स्थापित की गई । ध्वज पताका को फहराने के लिए पहले विधि-विधान से पूजन किया गया,उसके बाद शहर के अर्जुन सोनी ने करीब 107 फीट ऊंचाई पर बिना किसी अतिरिक्त सुरक्षा संसाधनों के मंदिर शिखर तक चढ़कर धार्मिक ध्वज पताका को स्थापित किया। मंदिर के शिखर पर पहुंचकर अर्जुन सोनी ने शंखनाद किया और मंदिर घंटियों को ध्वनित किया। परंपरागत आयोजित कार्यक्रम के दौरान नीचे खड़े लोग टकटकी लगाए शिखर की ओर देखते हुए जयघोष करते रहे।
वर्षों से चली आ रही परंपरा के मुताबिक झालरापाटन के 11 वीं शताब्दी के बने अति प्राचीन सूर्य मंदिर पर विजयादशमी के अवसर पर नई ध्वज पताका स्थापित करने की परंपरा चली आ रही है। इस के तहत आज विजयादशमी के अवसर पर सूर्य मंदिर परिसर में पहले नई ध्वज पताका का विधि-विधान से पूजन किया गया, फिर झालरापाटन निवासी युवक अर्जुन सोनी इस ध्वज को लेकर निकल पड़े मंदिर के शिखर की ओर, जिसकी ऊंचाई करीब 107 फिट से भी अधिक है। अर्जुन सोनी बीते कई वर्षों से लगातार विजयादशमी के अवसर पर सूर्य मंदिर पर ध्वज पताका को बदलने का कार्य करते आ रहे हैं। इस वर्ष भी अर्जुन सोनी देखते ही देखते भय पैदा करने वाली ऊंचाई पर पहुंच गए और नई पताका को फहराया। परंपरा मुताबिक शिखर पर पहुंचकर वहां स्थापित झालर व घंटीया भी बजायी और शंखनाद करने के बाद सकुशल वापस नीचे आ गए। इस दौरान बड़ी संख्या में श्रद्धालु सूर्य मंदिर के आसपास जमा रहे और इस हैरतअंगेज कारनामे को देखकर दांतो तले उंगली दबाने को मजबूर हो गए।
हालांकि इस दौरान नागरिको के द्वारा ढोल की थाप और धार्मिक जयकारों से अर्जुन सोनी का उत्साहवर्धन किया जाता रहा। बाद में नीचे सकुशल उतरे अर्जुन का सूर्य मंदिर समिति के सदस्यों ने साफ पहनाकर और तिलक लगाकर अभिवादन भी किया।
अर्जुन सोनी का कहना है कि वे यह कार्य किसी लाभ के लिए नहीं,बल्कि भगवान पद्मनाभ के आशीर्वाद के लिए करते हैं। उनके द्वारा सूर्य मंदिर पर लगातार सातवें वर्ष यह धर्म विजय पताका स्थापित की गई है और जब तक जीवित है तब तक प्रतिवर्ष ध्वज पताका फहराते रहेंगे।
हम आपको बता देना चाहते हैं कि सूर्य मंदिर यहाँ के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। यह मंदिर अपनी प्राचीनता और स्थापत्य वैभव के कारण कोणार्क के सूर्य मंदिर और ग्वालियर के 'विवस्वान मंदिर' का स्मरण कराता है। शिल्प सौन्दर्य की दृष्टि से मंदिर की बाहरी व भीतरी मूर्तियाँ वास्तुकला की चरम ऊँचाईयों को छूती है। मंदिर का ऊर्घ्वमुखी कलात्मक अष्टदल कमल अत्यन्त सुन्दर जीवंत और आकर्षक है। शिखरों के कलश और गुम्बज अत्यन्त मनमोहक है। गुम्बदों की आकृति को देखकर मुगलकालीन स्थापत्य एवं वस्तुकला का स्मरण हो जाता है।
निर्माण काल
राजस्थान में कभी 'झालरों के नगर' के नाम से प्रसिद्ध झालरापाटन का हृदय स्थल यहाँ का सूर्य मंदिर हैं। इस मंदिर का निर्माण नवीं सदी में हुआ था। यह मंदिर अपनी प्राचीनता और स्थापत्य वैभव के कारण प्रसिद्ध है।कर्नल जेम्स टाँड
ने इस मंदिर को चार भूजा (चतुर्भज) मंदिर माना है। वर्तमान में मंदिर के गर्भग्रह में चतुर्भज नारायण की मूर्ति प्रतिष्ठित है।
इतिहास
11 वीं सदी पश्चात् सूर्य मंदिर शैली में निर्मित 'शान्तिनाथ जैन मंदिर' को देखकर पर्यटकों को सूर्य मंदिर में जैन मंदिर का भ्रम होने लगता है। किन्तु चतुर्भुज नारायण की स्थापित प्रतिमा, भारतीय स्थापत्य कला का चरम उत्कर्ष एवं मंदिर का रथ शैली का आधार, ये सब निर्विवाद रूप से सूर्य मंदिर प्रमाणित करते हैं। वरिष्ठ इतिहासकार बलवंत सिंह हाड़ा द्वारा सूर्य मंदिर में प्राप्त शोधपूर्ण शिलालेख के अनुसार संवत 873(9 वीं सदी) में नागभट्ट द्वितीय द्वारा नागभट्ट द्वितीय झालरापाटन के इस मंदिर का निर्माण कराया गया था।
स्थापत्य शैली झालरापाटन का विशाल सूर्य मंदिर, पद्मनाथजी मंदिर, बड़ा मंदिर, सात सहेलियों का मंदिर आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध है। यह मंदिर दसवी शताब्दी का बताया जाता है। मंदिर का निर्माण खजुराहो एवं कोणार्क शैली में हुआ । यह शैली ईसा की दसवीं से तेरहवीं सदी के बीच विकसित हुई थी। रथ शैली में बना यह मंदिर इस धारणा को पुष्ट करता है। भगवान सूर्य सात अश्वों वाले रथ पर आसीन हैं। मंदिर की आधारशिला सात अश्व जुते हुए रथ से मेल खाती है। मंदिर के अंदर शिखर स्तंभ एवं मूर्तियों में वास्तुकला उत्कीर्णता की चरम परिणति को देखकर दर्शक आश्चर्य से चकित होने लगता है।
शिल्प सौन्दर्य की दृष्टि से मंदिर की बाहरी व भीतरी मूर्तियां वास्तुकला की चरम ऊँचाईयों को छूती है। मंदिर का ऊर्घ्वमुखी कलात्मक अष्टदल कमल अत्यन्त सुन्दर जीवंत और आकर्षक है। मदिर का उर्ध्वमुखी अष्टदल कमल आठ पत्थरों को संयोजित कर इस कलात्मक ढंग से उत्कीर्ण किया गया है, जैसे यह मंदिर कमल का पुष्प है। मंदिर का गगन स्पर्शी सर्वोच्च शिखर 97 फीट ऊँचा है। मंदिर में अन्य उपशिखर भी हैं। शिखरों के कलश और गुम्बज अत्यन्त मनमोहक है। गुम्बदों की आकृति को देखकर मुगलकालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला का स्मरण हो जाता है। सम्पूर्ण मंदिर तोरण द्वार, मण्डप, निज मंदिर, गर्भ ग्रह आदि बाहरी भीतरी भागों में विभक्त हैं समय समय पर मंदिर के जीर्ण ध्वजों का पुनरोद्धार एवं ध्वजारोहण हुआ है।
विविध उल्लेख
पुराणों में भगवान सूर्य देव की उपासना चतुर्भुज नारायण के रूप में की गई है। 'राजस्थान गजेटियर' झालावाड़ के अनुसार भारतीय पुरात्वत सर्वेक्षण विभाग भारत सरकार द्वारा यहाँ के संरक्षित महत्वपूर्ण स्मारकों की सूची में सूर्य (पद्मनाथ) मंदिर का प्रथम स्थान है। 'सूचना व जनसम्पर्क विभाग' द्वारा प्रकाशित 'राजस्थान झालावाड़ दर्शन'[2]तथा 'ज़िला झालावाड़ प्रगति के 3 वर्ष'[3] संदर्भ ग्रन्थों में भी सूर्य मंदिर को 'पद्मनाथ' तथा 'सात सहेलियों का मंदिर' कहा गया है। 'पर्यटन और सांस्कृतिक विभाग' राजस्थान द्वारा प्रकाशित 'राजस्थान दर्शन एवं गाइड' में इस प्राचीन मंदिर को झालरापाटन नगर का प्रमुख आकर्षण केन्द्र माना माना गया है।भारत में सूर्य की सबसे अच्छी एवं सुरक्षित प्रतिमा के रूप में इसे मान्यता प्रदान की गई है।
परिसर में बढ़ता अतिक्रमण संवत 1632, 1871 एवं 257 के ध्वज उत्सव उल्लेखनीय हैं। मण्डप की छत पर साधुओं की कलात्मक जीती जागती मूर्तियां देखते बनती है। देवस्थान विभाग से जुड़ा यह मंदिर विशेष देखभाल की अपेक्षा रखता है मंदिर के परिसर में बढ़ता अतिक्रमण और व्यावसायिक दुकानों का अस्तित्व मंदिर के पुरा एतिहासिक स्वरूप व इसकी भव्यता में बाधक हैं।झालावाड़ जिला विकास की बहुआयामी संभावनाओं से भरा है। यह पर्यटन के राष्ट्रीय फलक पर तेज़ीसे उभर रहा है। भविष्य में झालरापाटन का सूर्य मंदिर राष्ट्रीय स्तर की सांस्कृतिक निधि के रूप में मान्यता प्राप्त करेगा और नगर की समृद्धि में सहायक होगा।