क्या हर अस्पताल की चौखट पर चाहिए एक ''किरोड़ीलाल''?

Monday, Oct 27, 2025-05:53 PM (IST)

विशाल सूर्यकांत

क्या राजस्थान के अस्पतालों में मरीज़ और उनके परिजनों की दर्दीली कहानियां एक मंत्री किरोड़ीलाल और एक निजी अस्पताल के बीच का घटनाक्रम बन ही ख़त्म कर दिया जाना चाहिए. मुझे लगता है कि ये कहानी यहां ख़त्म होने के बजाए यहीं से शुरु होना चाहिए. जयपुर में एक मंत्री ने एक पीड़ित परिवार को अपने परिजन की लाश अस्पताल के कब्जे से छुड़वाई है बल्कि अब तक दिवंगत मरीज के ईलाज के लिए वसूले गए लाखों रूपयों को भी वापस करवाया है. ये कोई साधारण घटना नहीं...ये बड़ी राजनीतिक घटना तो है ही, 

एक मंत्री, अपने विभाग के दायरे से निकल कर अपने क्षेत्र के लोगों की मदद के लिए दूसरे मंत्री की टेरेटरी में चला गया. लेकिन इस राजनीतिक चर्चा से परे, ये सवाल मानवीय पहलू और सामाजिक बन चुकी इस समस्या से ज्यादा जुड़ रहा है ...प्रदेश में सरकारी अस्पतालों में अराजकता कम नहीं, और निजी अस्पतालों में निरंकुशता कम नहीं...दोनों जगह अतिरेक की इस स्थिति का खामियाजा मरीज अपनी जान देकर चुका रहे हैं. लाशों के बदले पैसे वसूलने का खेल, किसी की बेइंतेहा मजबूरी से खेलने का खेल...

सरकारों के खेल भी अजब हैं साहब...सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर्स और नर्सिंग कर्मियों की निजी सेवाएं प्रबल है और निजी अस्पतालो में सरकारी योजनाएं, पैसा ऐंठने का जरिया बन रही हैं. निजी अस्पतालों के आगे झुकती ब्यूरोक्रेसी और सरकारों के ये हाल हैं कि आज मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की फ्लैगशिप योजना में पारदर्शिता लाने की कोशिश की जाती है तो निजी अस्पताल योजना में ईलाज बंद कर हड़ताल पर चले जाते हैं. सरकार दबाव में आ जाती है और मेडीकल योजनाएं फिर निजीकरण की बंधक बन जाती हैं. 

मुझे हैरत होती है जब अस्पताल पूरी प्रक्रिया में अपनी गलती होने से इंकार कर देता है और फिर चुपचाप पूरे ईलाज में वसूला गया पैसा रिफंड कर देता है... क्या हर अस्पताल की चौखट पर एक किरोडीलाल जैसा नेता लगाना होगा जो अस्पतालों की मनमानी के खिलाफ मोर्चा खोले, क्या यही समाधान है...तो लाइए किरोड़ी जैसे और नेता...जो हर शहर, कस्बे और गांव में बने निजी अस्पतालों से बाहर मीडिया बुलाए, धरना लगाएं....जिंदाबाद, मुर्दाबाद हो और परिजनों को बंधक बनाया गया मुर्दा लौटाएं... अगर यही सब कुछ होना है तो स्वास्थ्य भवन, सचिवालय में बैठे अफसरों का क्या काम..क्या वे सिर्फ ऐसे सिफारिशीलाल हैं, जिन्हें जनता से जनता, निजी व्यवस्थाओं से सरोकार है...ईलाज बुनियादी हक़ है.,.ईलाज के नाम पर रुपए ऐंठने वालों पर अब तक जो हुआ वो नाकाफी है...ये तो मंत्री और अस्पताल प्रबंधन के बीच का समझौता है...सरकार कहां है, सिस्टम कहां है...क्यों नहीं तुरंत जांच कमेटी बनाई गई, क्यों नहीं केस दर्ज किया गया...पूरी राशि रिफंड करने का मतलब अपनी गलती मानना है या फिर बात आगे न बढ़ाने की एवज में दिया गया मुआवज़ा...क्या समझें हम इस सिस्टम को ? जहां एक मंत्री की सक्रियता, एक लाचार परिवार को न्याय दिला देती है वहीं उसी समय प्रदेश भर के निजी अस्पतालों में कोई न कोई लूटा जा रहा है, कोई न कोई छला जा रहा है...हर किसी न तो मंत्री तक पहुंच हैं और न ही हर किसी के पास मंत्री जा सकते हैं...ये काम तो सिस्टम को ही करना होगा...वो न करें तो फिर मंत्री और जनता मैदान में उतरते रहेंगे...संतरी व्यवस्थाओं के फूटे ढोल बजाते रहेंगे...

निजी अस्पतालों को सरकारें चिरंजीवी और आयुष्मान योजनाओं के जरिए एक तरह से सरकारी अस्पतालों की तरह की संभाल रही है. चिकित्सा योजनाओं की वजह से निजी अस्पतालों में न सिर्फ फुटफॉल बढ़ा है बल्कि सरकारी योजनाओं का लाभ निजी अस्पतालों में मिलने से जनता का विश्वास भी निजी अस्पतालों में जुड़ा है. लेकिन पैसों की भूख़, पेट की भूख से ज्यादा बड़ी होती है..पेट की भूख चंद निवालों से ख़त्म हो जाए लेकिन पैसों की भूख ऐसी कि अस्पताल मालिकों की तिजोरियां अंधा कुआ बन जाती हैं. जहां जितना पैसा दिया जाए वो कम है. एक ज़िंदा आदमी के एडमिशन की पर्ची चंद सैंकड़ों में और लाश के लिए लाखों की पर्ची बनेगी ? क्या वाकई राजस्थान ये अंधेरगर्दी बर्दाश्त कर सकता है ? लाशें वेंटिलेटर पर रखकर लाखों की वसूली, ये किस्से आम है. अस्पतालों की सर्जरी कीजिए सरकार, क्योंकि सैंकडों में की कीमत कुछ भी नहीं, और लाशें कैसे लाखों की हो जाती है ? क्या ये सवाल नहीं उठना चाहिए ?


Content Editor

Vishal Suryakant

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