झालावाड़ का सुनेल गांव: नवरात्रा की पंचमी पर 200 साल पुरानी माताजी के घोड़ले निकालने की अनोखी परंपरा

Saturday, Sep 27, 2025-06:47 PM (IST)

झालावाड़ | राजस्थान के झालावाड़ जिले का सुनेल गांव आज भी एक ऐसी धार्मिक परंपरा को संजोए हुए है, जो लगभग 200 साल पुरानी है। नवरात्रा की पंचमी पर यहां माताजी के घोड़ले निकालने की परंपरा आज भी उसी आस्था और उत्साह के साथ निभाई जाती है, जैसी यह होल्कर रियासत के दौर में शुरू हुई थी।

यहां की मान्यता है कि पंचमी की रात को सुनेल कस्बे के अलग-अलग माताजी के मंदिरों से घोड़ले निकलकर अपनी बड़ी बहन शीतला माता मंदिर में पहुंचते हैं। इस अवसर पर हजारों की संख्या में श्रद्धालु, महिलाएं और बच्चे शामिल होते हैं।

कैसे होती है परंपरा?

माताजी के साधक (घोड़ले) परंपरागत सोलह श्रृंगार कर, एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में धधकती ज्वाला से भरा खप्पर लेकर नंगे पैरों से निकलते हैं। उनके पीछे भक्तों का विशाल जनसैलाब “जय माता दी” के जयकारे लगाते हुए चलता है।

जुलूस ढोल-नगाड़ों के साथ कस्बे के प्रमुख मार्गों से होता हुआ राम मंदिर के पीछे स्थित शीतला माता मंदिर पहुंचता है। वहां सभी घोड़ले का संगम होता है और पूजा-अर्चना के बाद वे अपने-अपने थानक लौटते हैं। इस मौके पर मंदिर परिसर और प्रमुख मार्गों पर श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है।

कौन-कौन से मंदिरों से निकलते हैं घोड़ले?

बस स्टैंड स्थित चामुंडा माताजी

दुधाखेड़ी माताजी

लालबाई माताजी (घाणा चौक)

बिजासन माताजी

हिंगलाज माताजी

कालकी माताजी

सभी घोड़ले राम मंदिर चौक और छत्री चौक से गुजरते हुए भव्य गरबा और आरती के बाद शीतला माता मंदिर पहुंचते हैं।

सुनेल का इतिहास

सुनेल गांव, जिसे सुनेल-टप्पा कहा जाता है, कभी होल्कर रियासत का हिस्सा था। यहां से बहने वाली आहू नदी के कारण यह क्षेत्र व्यापार और कृषि के लिए समृद्ध माना जाता था।

1 नवंबर 1956 को यह क्षेत्र तत्कालीन मध्य प्रदेश से अलग होकर राजस्थान में शामिल किया गया। अहिल्याबाई होल्कर के शासनकाल में यहां मंदिरों, घाटों और धर्मस्थलों का विशेष महत्व बढ़ा।

आज भी सुनेल गांव इस धार्मिक धरोहर को संभाले हुए है और हर नवरात्रा परंपरा को जीवंत बनाए रखता है।


Content Editor

Kuldeep Kundara

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